Thursday, 27 November 2025

रेल-बादाम बनाम चीनियाबादाम

 


कहते हैं कि बादाम खाने से दिमाग़ तेज होता है। मैंने अपने ऊपर बादाम का कोई असर होते तो नहीं देखा, पर वैज्ञानिक कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। किसी सरकारी वैज्ञानिक या आरडीएसओ के मंतव्य पर रेल मंत्रालय ने यह तय कर दिया है कि हर मीटिंग में उपस्थित प्रतिभागियों को चाय के साथ अनिवार्य रूप से छ: बादाम परोसे जाएँ। यह ज़िम्मेदारी सभा के आयोजक अधिकारी को दी गई है। रेल-मंत्रालय का एक उप-निदेशक इसका लेखा-जोखा रखेगा। रेल भवन के अधिकारी अब बादाम खाएँगे चाहे आम यात्री को चीनियाबादाम (मूंगफली) ही क्यों ना परोसते रहें। 


इस प्रस्ताव पर विचारार्थ रेल-भवन में एक कमिटी बनी और बड़ी मंत्रणाएँ हुईं। कई सभाओं के बाद भी जब अनिर्णय की स्थिति बनी रही, तब अगली सभा में सभी को पाव-पाव भर बादाम परोसे गये। इसके बाद अक्लवर्द्धित कमिटी ने आनन-फ़ानन में सिफारिश कर दी कि हर सभा में इसी प्रकार हर प्रतिभागी को पाव-पाव भर बादाम दिये जाएँ क्योंकि क्या इसका प्रभाव हमने सिद्ध नहीं किया। कमिटी की बादाम खाने के बाद त्वरित बढ़ी कार्यदक्षता को देखकर रेल के बड़े अधिकारियों में एक चिंता की लहर दौड़ गई कि यदि जूनियर अधिकारियों को इतना दिमाग़ आ गया तो हमारे सिग्नेचर गुणों का क्या होगा, यथा फ़ाईल पर बैठना, अनिर्णय से जनता को और राष्ट्र को सस्पेंस में रखना, ऊहापोहः परमो धर्मः का पालन करना। और यदि रेलवे इतने बादाम बाँटने लगे तो बजट में बड़ा घाटा हो सकता है - लाईन दोहरीकरण, पुल-निर्माण, स्टेशन डेवलपमेंट, और वंदे भारत ट्रेनों के लिये तो धन बचेगा ही नहीं।


फिर बड़े अधिकारियों ने आपस में एक बैठक की, जिसमें हरेक को आध-आध सेर बादाम बाँटे गये, अखरोट के तेल में बना बादाम का हलवा और बादाम को महीन घिसकर बनाई ठंडई भी परोसे गये। फिर भी बढ़ती उम्र के कारण हफ़्ता भर लगा। निर्णय लिया गया कि सभाओं में हर प्रतिभागी को छ:-और-सिर्फ़-छ: बादाम दिये जाएँ। हमें तेज़-दिमाग़ अधिकारी तो चाहियें, पर इतने तेज़-दिमाग़ भी नहीं कि हमारे ही कान काटने लगें। वित्त विभाग ने सहमति दे दी, पर उस प्रक्रिया में भी चार-पाँच सेर बादाम ख़र्च हो गये।


अब बैठकों का मापदंड बदल गया है। साहब लोग कहने लगे हैं कि यदि साठ बादामों वाली, यानि दस लोगों की, बैठक में कोई फ़ैसला नहीं हुआ तो क्यों ना एक बड़ी सभा बुला ली जाए - एक सौ बीस बादामों वाली? अब बात होने लगी है कि टेंडर कमिटी अठारह-बादामी होगी या चौबीस-बादामी। कहते हैं कि इस पथप्रवर्त्तक (पाथब्रेकिंग) विचार की प्रेरणा इस गीत से मिली है।

https://youtube.com/shorts/VvjMu5Po8LY?si=CiN7qjevLYuG9jJ5


अब यदि आप मीटिंग हेतु रेल-भवन जाएँ तो सुबह का नाश्ता ना करें; चाय की चुस्कियों के साथ छ: भुने हुए बादाम आपकी दिनभर की शारीरिक और मानसिक देखभाल के लिये पर्याप्त होंगे। परंतु यह आवश्यक होगा कि सभी छ: बादाम सभा के दौरान खा लिये जाएँ। बैठक के कार्यवृत्त में इसका स्पष्ट उल्लेख किया जाये कि हर अधिकारी ने पूरे छ:, और सिर्फ़ छ:, बादामों का सेवन किया था। बादाम बड़ी महँगी चीज़ है। कहीं ऐसा न हो कि कोई अधिकारी चुपके से दो-चार बादाम उठकर जेब में रख ले और हफ्ते भर की सभाओं के बाद घर में कोई पार्टी दे डाले। कोई बादामगेट टाईप घोटाला ना हो जाए। वरिष्ठ अधिकारियों को गोपनीय निर्देश दिये गये हैं कि वे अपने मातहतों की प्लेट पर लालची नज़र ना डालें और अपने कोटे के आधा दर्जन बादामों से ही संतोष करें।


अबतक के आँकड़ों से यह कह पाना कठिन है कि इस बादामी आदेश से रेलवे की वित्तीय स्थिति पर क्या असर पड़ेगा। यदि बजट घाटा बढ़ता है तो यात्री किराया बढ़ा दिया जाएगा। बादामों की संख्या में कटौती संभव नहीं है। दूसरे मंत्रालयों में भी सुगबुगाहट हो रही है, और दबी आवाज़ में बैठकों में बादाम की माँग की जाने लगी है। अब अच्छे-दिन सचिवालयों से निकलकर देश भर में जलवा दिखाने को कुलबुला रहे हैं।

Friday, 21 November 2025

Indian Railways, Thy Name is Feudalism

 

Railways is probably the only government department, where the boss, a Principal Head of Department, a Board Member, or even an Additional Member, a General Manager, or a Divisional Railway Manager, are so inaccessible to their subordinate officers, even those at the very next level. Each such big boss has two entries to his office room, one through the room of his secretary, and the other one a direct entry or the main door. Whereas the Bada Sahib’s peon can use the main door, even senior officers are required to use the one through the secretary’s room. Let’s call that the minion’s door to differentiate it from the main door.


Entry through the main door was the privilege only accorded to colleagues of equal rank and Trade Union leaders. The latter thought that they were of a higher rank. I have always entered the rooms of my bosses through the minion’s door and felt rather small every time. 


So, when I reached such a position, I let it be known that all officers would enter my office room through the main door. There was neither a need to seek the secretary’s nod nor of checking on the mood of the boss. I was soon visited by a trade union official and was told, almost as an order, that the union honcho will use the main door for entering my office whenever he would honour me with his visit. Wasn’t he too big to use the minion’s door?


I told him that everybody entered my room through the main door. The union guy was aghast, “But Sir, how can you allow everyone through this door?” The status of his own boss had just been lowered to that of “everyone” in my office and there was no claim to privilege remaining.


(In other ministries, even if there is a need to check with the secretary to see if the boss is free to see one, the entry is always through the main door. There is no minion’s door.)

Wednesday, 19 November 2025

रोहिणी आचार्य यादव के नाम एक खुला पत्र



बिहारवासियों की अप्रिय रोहिणी बहन और कुपुत्री,


तुम्हारे विवाह में ही पटना के कार शोरूमों के ताले तोड़कर दर्जनों नई गाड़ियाँ उड़ा ली गई थीं ना? तुम्हारे पिता और उसके गुंडों का ही आतंक था ना, जिसके कारण शोरूमों के मालिकों ने शिकायत लिखवाने से मना कर दिया था? यहाँ तक कि उन्होंने तो यह भी नकार दिया था कि ऐसी कोई लूटपाट हुई भी थी। उन्हें पता था कि पुलिस शिकायत तो दर्ज नहीं ही करेगी, उल्टे उन लोगों को ही फँसा देगी, और उस उद्दंडता का दंड फिर मार-पीट और हत्या से भी दिया जायेगा। ठीक वैसे ही जैसे एक आईएएस अधिकारी की पत्नी, उसकी वृद्ध माँ, और नौकरानी का दो वर्षों तक तुम्हारे पिता के गुंडों ने सरकारी गेस्ट-हाऊस में बलात्कार किया। तीन-चार बार गर्भपात कराना पड़ा। पर ना तो पुलिस थाने ने और ना ही पुलिस के बड़े अधिकारियों ने कोई कदम उठाने का साहस किया। बेचारा इस्तीफ़ा देकर अपने गृह राज्य चला गया।


आम आदमी, व्यापारियों और किसानों के तो क्या कहने? दर्जन भर नरसंहारों में गाँव-के-गाँव घेर कर तुम्हारे पिता के द्वारा प्रोत्साहित और पोषित सेनाओं ने सैकड़ों हत्याएँ की। सिर्फ़ गोली नहीं मारी, बल्कि बापों और भाइयों के सामने माताओं और बेटियों का बलात्कार कर बर्बरतापूर्वक मार डाला। बेटों की जान ही नहीं ली, माँ-बाप के सामने उनका पेट फाड़कर अँतड़ियाँ बिखेर दीं। व्यापारियों की दुकानों पर क़ब्ज़ा कर लिया, लोगों को बेदख़ल कर उनके घर छीन लिये। जिसने ज़रा भी विरोध किया उसकी दिन-दहाड़े हत्या कर दी। हज़ारों व्यापारी अपनी धन-सम्पत्ति छोड़कर रातों-रात भाग गये, ठीक वैसे ही जैसे कश्मीरी हिंदू भागे थे। पर बिहार में कोई धार्मिक उन्माद नहीं था, एक दो जातियों को लूट-पाट की खुली छूट और सरकारी तंत्र से संरक्षण मिला था। लोगों ने क़र्ज़ लेकर, ज़मीन-जायदाद बेचकर अपने बेटे-बेटियों को राज्य के बाहर पढ़ने भेज दिया। पता नहीं किस दिन बेटी उठा ली जाए जैसे शिल्पी जैन को तुम्हारे पिता के गुंडों ने उठाया, उसका बलात्कार किया और मार डाला। पता नहीं कब बेटे का अपहरण हो जाए और मुजफ्फरपुर के पाँच साल के मासूम गोलू की तरह पाँच टुकड़ों में उसका सड़ता हुआ शव मिले?


रबड़ीपुत्री रोहिणी,


जिस प्रकार पिता द्वारा कमाई संपत्ति और माँ द्वारा दिये संस्कार संतानों के जीवन की दिशा तय करते हैं, उसी प्रकार माँ-बाप और चाचा-मामाओं के पापों का फल भी संतति को भोगना ही पड़ता है। तुम्हारा और तुम्हारी बहनों का नर्कवास अभी शुरु ही हुआ है। जिस प्रकार तुम्हारे पिता के घर से एक बहू को मार-पीट कर, बालों से घसीटकर, बाहर फेंका गया था, क्या तुम्हें चप्पल मारकर निकाले जाने का दिन उसी समय तय नहीं हो गया था? क्या हज़ारों-हज़ार दु:खी आत्माओं की हाय की ज्वाला सिर्फ़ आरजेडी की चुनावी हार से बुझेगी?


नहीं लालूपुत्री,


तुम भाई-बहन अपने पिता के कुकृत्यों के ना सिर्फ़ साक्षी हो, बल्कि उसके लाभार्थी भी हो। हर मोटा-थुलथुल भाई भोला और हास्य-पसंद नहीं होता। तुम्हारे जिस भाई ने अपने बड़े भाई-भाभी को, ओर अब तुम बहनों को निकाल-बाहर किया है, यह उसकी घटिया परवरिश का ही प्रमाण है। क्या इसी पाप की परवरिश को बिहार की जनता अपना नेता चुनने वाली थी? सोचकर ही मन सिहर उठता है। खैर उसके पापों का फल वह नहीं तो उसके बच्चे भुगतेंगे। पर तुम्हारा वही भाई अपने माता-पिता के साथ शीघ्र ही कारावास को प्राप्त होगा।


कहते हैं मनुष्य का स्वर्ग और नर्क, दोनों इसी धरती पर हैं। यह सिद्धांत साक्षात् सिद्ध होता दीख रहा है। कर्म किसी को नहीं छोड़ता, बस अपने समय से प्रकट होता है। यह ना समझो कि तुम्हारे परिवार का बुरा वक्त निकल गया। अभी तुम्हारे परिवार को अनेक कष्ट भोगने हैं। ईश्वर करे तुमलोगों को सुबुद्धि प्राप्त ना हो। मेरी कोई सहानुभूति लालू परिवार के साथ नहीं है, सिर्फ़ शाप और नफ़रत है। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि कर्म के चक्र में व्यवधान ना डालें। ईश्वर से यह भी प्रार्थना है कि लालू यादव को लंबी ज़िंदगी दें ताकि तुम्हारे पिता जीते जी ही नर्क का संपूर्ण भोग कर पायें। 


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Wednesday, 6 August 2025

Swamiji and the Railway Station of Periyanaickenpalayam

 

      Clockwise from top left: Old 1873 Building, the Kachcha Platform, The Plaque, Completed Building, Work in Progress

(Story of the First Ever Railway Station Redeveloped on Indian Railways)

“But Swami Ji, I have neither the sanction nor the funds for this work. How can I help you?” I said.

The year was 2016. Swami Sahanand Ji of the Ram Krishna Mission Ashram of Coimbatore was sitting across my table in my office. I was the Divisional Railway Manager of Salem Division in Tamil Nadu, Southern Railway. Swami Ji wanted me to rebuild the railway station, actually a halt station, of Periyanaickenpalayam, a small Panchayat Town, North of Coimbatore. Its population is just about twenty-five thousand, but it is home to a large Math of the Ram Krishna Mission, second only to the Belur Math. It also has a large educational campus that has over ten thousand students from primary to doctoral levels. Thousands of students commute daily to the Mission and use the halt station of Periyanaickenpalayam. A halt station is a bare-bones station, where they don’t have signals or station staff. Trains that halt there stop for a couple of minutes in either direction.

Halt stations do not have any priority for the Railways towards improvement or investment. The existing station building was built in the year 1873 and was dilapidated beyond any possibility of repair. But Swami Ji had faith that if someone could do it, it was the DRM of Salem. He said, “If you can’t do it, nobody else will.”

I said, “Swami Ji, if you can get a sponsor who would fund it out of CSR funds, I promise to cut the bureaucratic red tape for you.” I told him it would cost about two crore rupees. Swami was sceptical about raising such a large amount of money but said he would try his best, blessed me, and left.

Not a fortnight had passed, and Swami Ji came to me with officials of Laxmi Machine Works, a major machine tool builder of the country. They had their factory and offices in the same Coimbatore neighbourhood as the Math and their workers too would be benefitted by a more hospitable station. I assured them that if they committed the funds required for the station building redevelopment, I would remove all the regulatory hurdles and approve the plans at my level. Then, I asked them to give me detailed drawings for the proposed station building and its surroundings. During my visit to LMW, I was surprised to find their meticulously prepared design of the building, landscaping in the front and detailed breakup of costs. When I saw their enthusiasm, I asked them if they could take up the construction and landscaping themselves. I was worried that the Railways system would be mired in procedures and eventually not build what the LMW and the Math had envisioned. No approvals were taken from the Southern Railway Head Quarters or the Railway Board.

So, a plaque was unveiled on the 2nd of April, 2016 commemorating the beginning of the station redevelopment work. It duly acknowledged the efforts of the company. Soon thereafter my term as DRM came to an end. But the station building was constructed exactly the way we had imagined. Thus was rebuilt the first railway station of the country, many years before the mission of station redevelopment was launched. And, it was done at no cost to the Railways and without a penny being handled by the Railway’s establishment.

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Thursday, 19 June 2025

प्लेटफार्म पर टहलने वालों की संख्या में भारी गिरावट

 

आम शहर या गाँव-क़स्बे में एकाध किलोमीटर ऐसी सड़क, पक्की या कच्चीनहीं होती कि कोई शरीफ आदमी सुबह टहलकर स्वास्थ्य-लाभ कर सके। या तो क़दम-कदम पर गड्ढे या मैनहोल मिलेंगे, या कोई साँड़ फुफकारता हुआ रास्ता रोके खड़ा होगा। आप सोच ही रहे हों कि किधर से निकलें तभी या तो किसी कोने से कोई कुत्ता लपकता-दौड़ता आपके टखनों पर धमकेगा या कोई शोहदा दहेज़ में मिली मोटरसाईकिल को लहराता हुआ आपके ठीक बगल से ऐसे  निकलेगा मानों आपके कान में कुछ कहना रह गया हो। कोई ढंग का पार्क क़स्बे में कभी रहा भी हो तो अब तक कचरे के पहाड़ में तब्दील हो गया होगा या पी डब्लू डी वालों ने घेर-घार कर ईंट, गिट्टी, रेत का गोदाम बना डाला होगा।

 

ऐसे पार्क-वंचित समाज के प्रातभ्रमण प्रेमियों के लिये रेलवे प्लेटफार्म से ज़्यादा शांत और सुकून देने वाली जगह क्या हो सकती है? कोई पौन या एक किलोमीटर की अबाध सीधी पगडंडी जिसपर ना आवारा मवेशियों से टकराने का खतरा, ना ही कोई गाड़ी-सवारी से दबने का डर। हॉं, कभी-कभी जेब कटने का अंदेशा ज़रूर बना रहता है। प्लेटफार्म पर टहलते-टहलते थक गये तो किसी बेंच पर बैठकर सुस्ता लिया। तलब हुई तो चाय-चबेने की भी व्यवस्था रहती है। कभी बड़े शौक पूरे करने हों तो ब्रेड-ऑमलेट या पूरी सब्ज़ी भी गपक ली जाती; घर पहुँचकर श्रीमती जी से बोल देते कि आज डायटिंग करने का इरादा है।

 

कुल मिलाकर कहें तो रेलवे प्लेटफ़ॉर्म बड़ी नियामत है। साइकिल उठाई, स्टेशन पहुँचे, साईकिल स्टैंड पर साईकिल खड़ी कर टोकन लिया, और चल पड़े मॉर्निंग वाक पर। वही पुराना प्लेटफ़ॉर्म, उन्हीं पुराने कुलियों और खोमचे वालों से सलाम-दुआ, बुकस्टॉल पर खड़े-खड़े अख़बारों की हेडलाइनों पर सरसरी निगाह डाली, मूड हुआ तो एक कुल्हड़ चाय सुड़क ली। अब तो प्लेटफ़ॉर्म टिकट भी कोई नहीं पूछता, उल्टे कभी माल बाबू तो कभी स्टेशन मास्टर चाय पूछ लेते हैं। यह सब करते हुए प्लेटफ़ॉर्म पर तीन-चार बार अप-डाउन करते, और इसके पहले कि डेली पैसिंजरों की भीड़-भाड़ शुरू हो, आपका मॉर्निंग वॉक पूरा। साईकिल स्टैंड वाले को अठन्नी पकड़ाई और चल पड़े वापस बाक़ी की दिनचर्या के पालन के लिये।

 

पर कुल-जमा एक अठन्नी में जो प्रातभ्रमण का आनंद मैंने वर्षों उठाया, वह रेलवे विभाग को फूटी आँखों नहीं सुहाया। कुछ दिन पहले दिनभर की आठ आने वाली साईकिल पार्किंग का रेट बढ़ाकर पचास रुपये प्रति घंटा कर दिया है। अब टहलने और चाय, अख़बार में डेढ़ घंटा भी निकला तो ठेकेदार हलक में हाथ डालकर सौ रुपये निकाल लेता है। सुना है मोटरसाईकिल का रेट तो सौ रुपये घंटा है। अच्छा हुआ जो मोटरसाईकिल कभी नसीब में ही नहीं रही। कभी-कभार साईकिल स्टेशन पर लगाकर सुबह की रेलगाड़ी से महानगर के बड़े दफ़्तर भी हो आता था। शाम को लौटा और अठन्नी चुकाकर घर पहुँच गया। कल अचानक कम्बख़्त ने आठ घंटे के चार सौ झटक लिये। हील-हुज्जत करने पर बोला कि रेट बढ़ गये हैं। अब आप ही बताएँ कि ऐसे पार्किंग चार्ज का क्या औचित्य जिसपर तीन-चार दिन के खर्चे पर नई साईकिल ही जाए? अरे पार्किंग है कि रामनगर के डाकुओं का अड्डा?

 

एक बार दो दिनों के लिये कहीं जाना पड़ गया। लौटकर साईकिल लेने गया तो ठेकेदार ने अड़तालीस घंटे के लिये चौबीस सौ रुपये की पर्ची थमा दी। मैंने कहा कि भाई तू मेरी साईकिल ही रख ले, वैसे भी पुरानी हो गई है। इतने में तो मैं नई साईकिल ले लूँगा। ठेकेदार आग बबूला हो गया। बोला ऐसा कर-कर के मेरे पास डेढ़ हजार साइकिलें इकट्ठी हो गई हैं। आप तो बस पैसे भरो और अपनी खटारा साईकिल ले जाओ। खैर मैंने कुछ बहाना बनाया कि इतने रुपये तो जेब में नहीं हैं, घर से लेकर आता हूँ। तो ठेकेदार बोला आने जाने में एक घंटा और लग जाएगा, फिर पूरे साढ़े चौबीस सौ लेकर आना। मैं तो यह जा और वह जा। फिर कभी साईकिल स्टैंड का रुख़ नहीं किया। मॉर्निंग वाक का क्या? अब ऑटो से आता-जाता हूँ, फिर भी पार्किंग से सस्ता पड़ता है।


धन्य हो रेल विभाग!

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